



BY NAVEEN PANDEY
दैनिक समाचार, देहरादून: बस इतना समझ लीजिए कि जिस गौरैया को सनकी चीन ने गैर जरुरी समझकर कत्ल-ए-आम किया, उसी की सजा चीन को अकाल के रूप में भोगनी पड़ी। चीन की हालत ये हो गई कि उस दौर में करीब सवा तीन करोड़ लोगों की भूख से तड़प कर मौत हो गई। हालांकि चीन के सरकारी आंकड़ों में मौत के आंकड़े 1.5 करोड़ बताए गए थे।
इतिहासकार और जानकार तो ये भी मानते हैं कि भूख से तड़प रहे लोगों ने इंसानों को खाना तक शुरु कर दिया था।
अब हमें ये जानने की जरुरत है कि आखिर चीन ने ऐसा क्या किया, जिससे एक छोटी चिरइया करोड़ों लोगों के लिए काल बन गई। पिछले 100 सालों के इतिहास पर नजर डालें तो पाएंगे कि माओ चीनी नेताओं ने कुछ ऐसे फैसले भी लिए जो देश को कई दशक पीछे ले गए। ऐसा ही एक फैसला था गौरेया को चीन से खत्म करने का। दरसअल, चीन ने पश्चिम देशों की तरह आगे बढ़ने की होड में सामूहिक खेती करने और उद्योगों को बढ़ाने के लिए एक अभियान की शुरूआत की। जिसका नेतृत्व चीन में वामपंथ की नींव रखने वाले माओत्से तुंग ने की। वामंपथी सोच के माओत्से तुंग ने ये माना कि चार तरह के जानवरों की वजह से उनके देश की तरक्की नहीं हो रही है। इनमें चूहे, मच्छर, मक्खियां और गौरेया को शामिल किया गया। माओ ने पहले चूहे, मच्छर और मक्खियों को खत्म करने के लिए पूरी ताकत झोंक दी। फिर सनकी तुंग ने बिना सोचे समझे गौरेया को खत्म करने की खतरनाक रणनीति बनाई। तुंग ने माना कि गौरैया बहुत ज्यादा अनाज खाती है जबकि अनाज का एक-एक दाना इंसानों के लिए होना चाहिए। फिर क्या था फैसला लागू होते ही चीन में गौरेया को खत्म करने का सिलसिला शुरू हो गया। गौरेया को खत्म करने के लिए लोग उसे गोली मारने लगे। घोंसलों को तोड़ना शुरू कर दिया। अंडों को फोड़कर खराब करने लगे। लेकिन गौरैया के कत्ल-ए-आम के बाद चीन को भारी क़ीमत चुकानी पड़ी। गौरैया के खात्मे से अनाजों पर लगने वाले कीट तेजी से अनाजों को चट करने लगे, जिससे चीन में भूखमरी की स्थिति पैदा हो गई। चीन को 1958 से 1962 के समय तक नर्क का दौर भोगना पड़ा। इस दौरान ऐतिहासिक अकाल पड़ा। इतिहासकारों का मानना है इस दौर में करीब सवा तीन करोड़ लोगों की मौत हुई। जब सब लूट गया, तबाह हो गया तब वामंपथी सोच रखने वाले चीन ने रुस सहित दूसरे देशों से गौरेया को आयात करना शुरू किया और गौरैया को खात्मे के अभियान से हटा दिया। पर्यावरणविद बताते हैं कि गौरैया के खात्मे के अभियान के दौरान चीन में लोग उस वक्त गौरैया को देखकर इतना शोर मचाते थे कि चिड़िया घोंसले तक पहुंच ही नहीं पाती थी और उड़ते-उड़ते ही थककर मर जाती थी। इसका असर सिर्फ गौरेया तक नहीं सीमित नहीं रहा दूसरे पक्षियों को भी भुगतना पड़ा। पक्षी वैज्ञानिकों का कहना है कि जब गौरेया की एनर्जी खत्म हो जाती है तो वह अपने घोंसले में आकर बैठ जाती है। भोजन की तलाश में दिनभर उड़ना एक थका देने वाला काम होता है। चीनी पत्रकार डाई किंग ने इस अभियान का जिक्र करते हुए लिखा था कि माओ को न तो जानवरों के बारे में जानकारी थी और न ही वो किसी विशेषज्ञ की सलाह को समझने को तैयार थे। उन्होंने सिर्फ इन्हें खत्म करने का फैसला लिया था, जिसका भुगतान पूरे देश को करना पड़ा। नेचर हिस्ट्री पर किताब लिखने वाले जिम टोड भी इस बात की पुष्टि करते हैं।